पत्रकारिता के क्षेत्र में संपादकीय पृष्ठ की परम्परा अत्यंत पुरानी है । दैनिक पत्र ही नहीं, साप्ताहिक मासिक अर्द्धवार्षिक व वार्षिक पत्र-पत्रिकाओं में भी संपादकीय पृष्ठ की अपनी गरिमा और महत्त्व है।
पाश्चात्य देशों में पत्रकारिता का जन्म व्यावसायिक विज्ञापनशीलता से हुआ जबकि भारत मे इसका प्रादुर्भाव जनसम्पर्क के सशक्त माध्यम के रूप में हुआ । यही कारण है कि आज भी स्वतन्त्रता आन्दोलन के आन्दाल युग के सम्पादकीय पृष्ठ संग्रहणीय हैं।
संपादकीय पृष्ठ एक विचार पृष्ठ है इसमें प्रधान सम्पादक, वरिष्ठ उपसम्पादक या सम्पादन मण्डल की वाणी अवतरित होती है। समाचार-पत्रों में समाचारों के जंगल के बीच एक ऐसा पृष्ठ भी होता है जो सम्पादकों की जिहवा, वाणी का कार्य करता है। इसी के माध्यम से समाज से एक संवादशीलता कायम करने का प्रयास होता है।
पाठक सनसनीखेज, ऐतिहासिक महत्त्व के समाचार तो पढ़ते ही हैं वे स्थानीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व अन्य क्षेत्रों के मुद्दों पर समाचार-पत्रों की राय जानना चाहते हैं। स्पष्ट है कि संपादकीय पृष्ठ या विचार पृष्ठ में समाचार-पत्रों की निजी राय रहती है, इसे ही जनता की आवाज माना जाता है। आम तौर पर दैनिक पत्रों में चौथे पृष्ठ पर संपादकीय लेखन की प्रथा है।
वैसे समाचार-पत्र साज-सज्जा या मेकअप का ध्यान रखते हुए पहले पृष्ठ या मुख्य पृष्ठ के बायीं ओर दो कॉलम का संपादकीय भी रखते हैं पर इसे संपादकीय पृष्ठ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि संपादकीय पृष्ठ पर समाचार नहीं होते अपितु समाचारों पर आधारित विभिन्न मुद्दों पर तर्क-वितर्क, विचार-विमर्श आदि होता है।
संपादकीय पृष्ठ जनमत निर्माण का अमोघ शस्त्र है। संपादकीय सम्पादक की निजी राय वैयक्तिगत रंगत से परे समग्र समाज की संवेदना, अनुभूति और विचारों के संवाहक हैं। इनके माध्यम से जनता की वाणी सरकार क का कार्य होता है। अतः जनसम्पर्क बनाने का कार्य भी होता है। एक लोकतान्त्रिक देश में संपादकीय का विशेष महत्त्व माना जाता है।
संपादकीय पृष्ठ पर एक या दो विषयों पर संपादकीय तथा लगभग दो विषयों पर अग्रलेख लिखने की परम्परा है। ये अग्रलेख किसी सामयिक विषय पर सारगर्भित सामग्री से ओत-प्रोत होते हैं जिन्हें प्रायः कोई प्रबुद्ध विचारक, लेखक ही लिखता है। यह आवश्यक नहीं कि वह समाचारपत्र सम्पादक विभाग का ही सदस्य हो ।
अग्रलेख समाज में प्रतिष्ठित तटस्थ, निर्भीक, उत्कृष्ट छवि के लेखक की प्रबुद्धतापूर्ण रचना माने जाते हैं। पहुंचाने अग्रलेखों में प्रभावात्मकता होती हैं इनमें सहजता होने के बावजूद भाषायी क्लिष्टता होती है। एक विशेष बात यह है कि अग्रलेखों में किसी नेता या समूह की चाटुकारिता का कोई स्थान नहीं होता।
इसीलिए इनमें किसी व्यक्ति, समूह को सम्बोधित कर लिखने का प्रचलन ही नहीं है। अग्रलेख संक्षिप्त, सरल, सारगर्भित सूझबूझ, विवेकशीलता से ओत-प्रोत रचना है। इसमें चिन्तन की गम्भीरता, तथ्यात्मक अन्वेषणशीलता का प्रयोग मिलता है। आमतौर पर पाठकों को सम्बोधन शैली में ही अग्रलेख लिखे जाते हैं। ये लेख सामयिक विषयों पर आधारित होते हैं। संक्षिप्तता, सम्बन्धित चित्र आदि आवश्यकतानुरूप प्रदान करना इनकी विशेषता है।
पत्रपत्रिका डिजाइन के अनुरूप संपादकीय पृष्ठ का स्थान निश्चित ही होता है। पत्रिकाओं के प्रारम्भ में तथा पत्रों में मध्य अर्थात् चौथे पृष्ठ पर इसे स्थान देने का प्रचलन है। सम्पादकीय लेखन कैसे करें, इस बारे में भी चर्चा होगी, परन्तु सम्पादकीय पृष्ठ पर
1. सम्पादकीय (संपादकीय)
2. अग्रलेख व टिप्पणियाँ
3. पाठकों के सम्पादक के नाम पत्र होते हैं।
पत्रपत्रिकाओं में पाठकों के पत्र, सम्पादक की डाक आदि सम्पादकीय पृष्ठ में ही प्रकाशित करने की परम्परा है।
‘पाठकों के पत्र’ नामक इस स्तम्भ में पाठक अपनी प्रतिक्रियाएं प्रकट कर सकते हैं। विभिन्न सम्पादकीयों, अग्रलेखों के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हैं। प्रबद्ध लोग भी समाज में विद्यमान हैं किसी लेखक प्रतिपादित तथ्यों पर अपनी टिप्पणी भी देते हैं। किसी स्थानीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय ज्वलन्त समस्या या वर्गगत समस्या का वर्णन कर सरकार व समाज का ध्यान केन्द्रित करता है।
अग्रलेखों पर अपनी सहमति व असहमति प्रकट करते हैं। इन पत्रों को पाठकों द्वारा प्रतिपादित सम्पादकीय भी कहा जाता है। अक्सर देखा गया है कि ये । अक्सर देखा पत्र अत्यधिक रुचि से पढे जाते हैं। उपसम्पादकों को इन पत्रों का चयन करते समय काफी सतर्कता बरतनी पड़ती है।
पत्रों द्वारा किसी व्यक्ति या संस्था की मान हानि न हो इसका ध्यान रखना पड़ता है। सरकार की कार्यशैली पर प्रतिक्रिया प्रकट करना मानहानि करना नहीं है। संपादकीय पृष्ठ पर सम्पादकीय अग्रलेख, पाठकों के पत्र के अतिरिक्त हास्य व्यंग्य कॉलम, कार्टून कोना आदि स्तम्भ होते हैं। ये हास्य, व्यंग्य, कार्टून सामयिक समस्याओं, व्यक्ति साक्षात्कारों पर आधारित होते हैं। कुछ पत्रों में एक छोटा व्यंग्यात्मक संपादकीय भी ‘होता है।
कुल मिलाकर इस वैविध्यपूर्ण सामग्री से संपादकीय पृष्ठों में गहन गम्भीरता विचारोत्तेजकता को हल्के-फुल्के रूप में प्रतिपादित करने की योजना होती है। गम्भीरता को कम करने के लिए हास्य व्यंग्य की पर्याप्त मात्रा भी अवश्य होती है। इसके अभाव में यह संपादकीय – पृष्ठ मात्र विचार पृष्ठ बनकर रह जाता है। इसे सामान्य पाठक नहीं पढ़ता।
आम तौर पर पाठक वर्ग समाचार पत्रों की सुर्खियों को पढ़ता है, राजनीति, अपराध व सनसनीखेज व स्थानीय समाचारों को रुचि से पढ़ता हैं, परन्तु संपादकीय पृष्ठ अछूता रह जाता है। प्रबुद्ध, जागरूक पाठक संपादकीय अग्रलेखों के माध्यम से किसी भी राष्ट्रीय विषय से जुड़ जाते हैं, बहस में भाग लेते हैं। संपादकीयों के माध्यम से राष्ट्र को आह्वान किया जा सकता है इसमें कोई शंका नहीं है !
सम्पादकीय लेख के आधारभूत सिद्धांत
प्रश्न यह है कि संपादकीय कौन लिखता है और वह कैसे लिखा। जाए। वह कौन-से सिद्धांत या सूत्र हैं जिनका प्रयोग संपादकीय लेखन के समय किया जाए।
अग्रलेख आम तौर पर विषय के ज्ञाता, प्रबुद्ध पत्रकारिता जगत के बाहर के लोगों द्वारा लिखवाये जाते हैं, परन्तु संपादकीय लेखन से प्रतिदिन सायंकालीन पारी में सम्पादन विभाग के अन्तर्गत प्रधान सम्पादक, संयुक्त सम्पादक, समाचार सम्पादक, वरिष्ठ उपसम्पादक की एक बैठक होती है जिसमें अगले दिन प्रकाशित होने वाले संपादकीय के विषय चयन, पारंगत सक्षम लेखक का चयन होता है।
संपादकीय जीवन और जगत के किसी भी विषय पर आधारित हो सकता है जैसे नारी की समस्याओं पर, बच्चों की शिक्षा, मजदूर की समस्या, भारत-पाक सम्बन्ध किसी पर भी वैचारिकता से ओत-प्रोत संपादकीय लेखन, लिखा जा सकता है या किसी अन्य सामयिक विषय चाहे वह किसी भी क्षेत्र का क्यों न हो संपादकीय का विषय बन सकता है। सम्पादन मण्डल का ही कोई विषय विशेषज्ञ उस विषय सम्बन्धी लेख को पूरा करता है।
सम्पादकीय लिखने के लिए वैचारिक परिपक्वता, सूझबूझ, व्यावहारिक ज्ञान आपेक्षित है। जिस घटना या विषय के बारे में लिखा जाये उसकी सम्यक जानकारी आवश्यक है। लेखन का कोई सीधा सपाट सूत्र या फार्मूला नहीं है। फिर भी कुछ बातों का ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है ये बातें निम्नलिखित हैं-
1. अमेरिका के संपादकीय लेखकों के राष्ट्रीय सम्मेलन 1940 में थोरी ने स्पष्ट किया कि संपादकीय लिखते समय कभी भी प्रथम पुरुष शैली अर्थात् ‘मैं’ का प्रयोग न करें सदा ‘हम’ लिखकर विचार प्रकट करें, क्योंकि संपादकीय विचार एक व्यक्ति का नहीं अपितु एक समाचार पत्र का विचार माना जाता है।
2. ईमानदारी और सत्यता का प्रयोग करें।
3. अपूर्ण तथ्यों के आधार पर संपादकीय न लिखें।
4. संपादकीय लेखकों को नवीन तथ्यों की नियमित जानकारी प्राप्त करनी चाहिए ।
5. हर विषय पर पुनर्विचार करना चाहिए ।
6. संपादकीय में यदि आलोचना की गयी है तो उसका आधार तथ्यपूर्ण हो। किसी बात को सही या गलत साबित करना भी जरूरी है। स्पष्ट यह है कि आलोचना करते समय पुष्टि आवश्यक है।
7. संपादकीय संक्षिप्त सारगर्भित आलेखन कार्य है अनावश्यक विस्तार उपहासास्पद ही हो सकता है।
8. ससंपादकीय के प्रारम्भ में ही आलोचना हो सारा सम्पादकीय एक ही रसमयता में सना हो। कभी-कभी सम्पादक अन्त में एक गद्यांश में आलोचना का अवतरण दे देते हैं यह उचित नहीं । स्पष्ट तो यह है कि सारे संपादकीय में आलोचना का फैलाव होना चाहिए।
9. आलोचना करने मात्र के लिए आलोचना अच्छी नहीं होती। सीमा से अधिक प्रशंसा या निन्दा दोनों अक्षम्य हैं। अतिरंजकता या अतिशयता किसी भी बात की हो अच्छी नहीं मानी जाती।
10. एकान्विति संपादकीय में अत्यन्त जरूरी है। अथ से इति तक संपादकीय में एकता रहनी चाहिए। यद्यपि संपादकीय एक सुगुम्फित और सागगर्भित संक्षित रचना है पर उसमें एकता का प्रवाह आवश्यक है। एम. लायल स्पेंसर ने Editorial Writing में इसे स्पष्ट किया है- “संपादकीय संक्षेप में, तथ्यों और विचारों का ऐसा तर्कसंगत और सुरुचिपूर्ण प्रस्तवन है जिसका उद्देश्य मनोरंजन, विचारों को प्रभावित करना या किसी महत्त्वपूर्ण समाचार का भाष्य प्रस्तुत करना है जिससे सामान्य पाठक उसका महत्त्व समझ सकें।”
11. संपादकीय लिखते समय किसी भी घटना, समाचार, तथ्य का पूर्ण विश्लेषण करने की चेष्टा करें कि क्यों, कहां, कैसे, कब सब कुछ हुआ ।
12. सामयिक विषयों के बारे में संपादकीय लिखते समय अतीत के घटनाक्रमों और सामयिक विषय के सम्बन्ध में पूरा ज्ञान आपेक्षित है। इस तरह संपादकीय में पृष्ठभूमि के रूप में अतीत का प्रयोग किया जा सकता है |
13. समाचारों में भविष्यवाणी को कोई स्थान नहीं है, क्योंकि समाचार तथ्यपरक, वस्तुपरक, प्रमाण पर आधारित न्यूज स्टोरी से बनते हैं. परन्तु संपादकीय एक लेखनुमा रचना है जिसमें भविष्यवेता की तरह पत्रकार कोई भी भविष्यवाणी कर सकता है।
सम्पादकीय लेखन की शैली
नये-नये संपादकीय लेखकों को यह जानना होगा कि आवेगमयी भाषा-शैली में ही संपादकीय नहीं लिखा जा सकता। हर अवसर के लिए अलग-अलग प्रकृति का संपादकीय होता है। एक जैसी शैली से संपादकीय लेखन हो ही नहीं सकता, क्योंकि कभी समाज या राष्ट्र प्रसन्नता का मुद्रा में होता है, कभी चिन्ताग्रस्त होता है, कभी आश्चर्य व्यक्त करता है। प्रेरणादायक, आह्वानकारी और समस्यामूलक स्थिति पर एक जैसा सम्पादकीय कैसे लिखा जा सकता है।
शेरडिन बेकर ने सम्पादकीय लेखन की शैली पर विचार व्यक्त करते हुए माना है कि लेखक को यह पता होना चाहिए कि क्या लिखना 3 है। निर्णयों का मूल्यांकन करना आना चाहिए। वाशिंगटन पोस्ट के सम्पादकीय लेखन एलन बार्ट के अनुसार- ‘अधिकांश पत्र उन व्यक्तियों द्वारा शुरू किये गये जिनके पास कुछ कहने को था।” जैक किल पैट्रिक की मान्यता है कि “हर व्यक्ति का बात कहने का अपना ढंग है। इसलिए हम दस में से नौ बार टेढ़ा-मेढ़ा कठिन रास्ता ही चुनते हैं।”
अक्सर माना जाता है कि प्रभावात्मक सम्पादकीय अब नहीं लिखे जाते। लम्बे-चौड़े आलेखन की बजाय यह जानना जरूरी है कि हर सम्पादकीय रचना अलग-अलग रचना शैली की मांग रखती है। यह कोई जोशीला भाषण नहीं। शैली विषयानुरूप होती है, कभी उपदेशात्मक शैली तो कभी व्याख्यात्मक शैली तो कभी नाटकीय शैली, कभी तर्कसम्मत, तथ्यात्मक शैली प्रयुक्त होती है ।
सम्पादकीय की शैली कोई भी हो रचना को आदि, मध्य, अन्त में विभक्त कर रचना प्रतिपादित करनी चाहिए। यह विभाजन अन्तर्मन में कर रचना लिखनी चाहिए। अन्त में निष्कर्ष दिया जाना चाहिए कि इसमें · विषय प्रवेश, विश्लेषण और निष्कर्ष दिया जाता है |
सम्पादकीय लेखन की एक शैली व्याख्यात्मक शैली है। इसमें Inverted Pyramid विलोम स्तूपी विधि अपनायी जाती है। इसमें महत्त्वपूर्ण बातों को सबसे पहले, कम महत्त्वपूर्ण को उसके बाद दिया जाता है। जिस बात का कोई महत्त्व नहीं उसे कोई अधिमान नहीं दिया जाता।” एक भिन्न शैली पुलीपट्ठा या घुमावदार शैली है।
इसमें आदि, मध्य, अन्त का ध्यान न रख विचारों का गुम्फित रूप दिया जाता है। सम्पादकीय में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि सब कुछ क्रमानुसार ही हो, वैचारिक सटीकता न होने पर सम्पादकीय रूपी राजप्रासाद ढह सकता है ।
संपादक की भाषा
रचना को सम्प्रेषणीय बनाने के लिए सरल, सहज, बोधगम्य भाषा में लेखन करना चाहिए। जहां तक सम्भव हो सरल सादगीपूर्ण भाषा का ही प्रयोग करें। कभी-कभी पारिभाषिक शब्दावली भी प्रयोग में लायी जाती है जैसे- (बजट सम्बन्धी सम्पादकीय, मुद्रास्फीति, रुपये का अवमूल्यन, पर्यावरण, राजनीति सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग करते समय सामान्य पाठकों का भी ध्यान रखना चाहिए। कभी-कभी उद्बोधनात्मक, प्रेरणादायिनी भाषा की आवश्यकता भी पड़ जाती है।
कठिन शब्दों व भारी भरकम वाक्यों से बचना चाहिए। इसका एक सूत्र है- सोचो, समझो और लिखो। रचना में विषयगत घनत्व जरूरी वहां मानवीय रुचि भी आवश्यक है। संपादकीय तभी प्रभावात्मक बनेगा जब समाज की रुचि का ध्यान रखा जाये । सम्पादकीय किसी भी विषय पर आधारित हो सकता है इसका उद्देश्य शिक्षाप्रदायकता, ज्ञानवर्धन, मनोरंजन भी हो सकता है। आर्लिन्स्की की मान्यता है “सरल ढंग से कहा गया हर शब्द विद्वता का सबूत है। -मुहावरे, लोकोक्ति रचना में सौन्दर्य तो लाते हैं पर सम्पादकीय केवल अलंकारिकता या लच्छेदार भाषा में रची रचना नहीं है।
अन्त में कहा जा सकता है कि सम्पादकीय लेखन चुनौतीपूर्ण कार्य है। विषय को समझना और उसी के अनुरूप सम्प्रेषणीय लेखन करना कर्मकौशलपूर्ण कार्य है। कजिन्स की मान्यता है- ‘यह आकाश में चक्कर काटने, गड़गड़ाने और अपने लक्ष्य पर झपटा मारने जैसा कार्य है।”