प्रेस जनसंचार का सशक्त माध्यम है। हर कोई जानता है कि समाज का कोई भी पहलू ऐसा नहीं है जिसका इसने कवरेज न किया हो। यद्यपि टी.वी., रेडियो का प्रचलन बढ़ा है, किन्तु भारत के बहुसंख्यक लोग समाचार-पत्र से ही अपने आस-पास, देश-देशान्तर के विषय में जानते हैं। स्थानीय समाचार हो या राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय समाचार हो या समाचार- चर्चा अधिकांश लोग समाचार-पत्रों से लाभान्वित होते हैं।
भारतीय प्रेस की वर्तमान स्थिति
यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं है कि आज समाचार-पत्र भारतीय जनमानस का अभिन्न अंग बन चुके हैं। वास्तव में भारत में प्रेस का उद्भव स्वतन्त्रता आन्दोलन से है जो पल्लवित होकर आज विराट रूप धारण कर चुका है। इसका मूल लक्ष्य लोगों को समाचार से अवगत कराना ही नहीं रहा। भारतीय समाचार पत्रों ने जनमानस को स्वतन्त्रता का अर्थ समझाया, दिशा-निर्देश किया। समाचार-पत्र आज भी लोकहित की भावना को अपना मूलमंत्र मानकर जनसेवा कर रहे हैं।
भारतीय प्रेस; प्रेस व्यक्ति और समाज के सर्वांगींण विकास का स्वर्णिम स्वप्न संजोये हुए है। वह समाज को विभिन्न प्रकार के समाचार प्रदान करता है। हम प्रेस के माध्यम से ही राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, साप्ताहिक, अपराधिक, विकास सम्बन्धी आदि समाचार जान पाते हैं। समाचार पत्र समाचारों के अतिरिक्त काफी सामग्री प्रदान करते हैं जो हमें नयी सूचना देती है जो हमारे सम्यक् विकास में सहायक होती है।
समाचार पत्र विविध रचनाओं के माध्यम से जर्जरित रूढ़ियों को दूर करने का प्रयास करते हैं। सामाजिक कुरीतियों का विरोध करते हैं और क्षेत्रीयवाद, भाषावाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता आदि को हटाकर भ्रातृत्व का संचार करते हैं। यद्यपि समाचार पत्र सभी वर्ग के लोग पढ़ते हैं या पढ़ना चाहते हैं, किन्तु पत्रों की भाषा-शैली सामान्य कोटि की नहीं होती। यही कारण है कि पाठकों को समाचार पत्र पढ़ने और समझने में बौद्धिक व्यायाम करना पड़ता है।
समाचार पत्रों का ध्येय विक्र्याशीलता और लोकप्रियता अर्जित करने का होता है। इसलिये लगभग सभी पत्र सरल सहज किन्तु परिमार्जित भाषा -शैली अपनाते हैं। अन्य विकासशील राष्ट्रों की भांति भारत में भी समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं की संख्या में अभिवृद्धि हुई है। स्वतन्त्रता के उपरान्त इसमें आशातीत वृद्धि हुई । बड़े पत्र संस्थानों में काफी लोग हैं | जबकि ग्रामीण, कस्बा एवं जिला स्तर के लघु पत्रों में कम लोग सेवारत हैं। चाहे पत्रों का आकार बड़ा हो या छोटा सभी पत्र जनसेवा कर रहे हैं, उद्यम का रूप धारण कर चुके हैं और आम जनता में उनकी विश्वसनीयता इतनी बढ़ी है कि आज समाचार-पत्रों को समय का प्रामाणिक दस्तावेज माना जा रहा है। भारतवर्ष में प्रेस सूचना प्रदान करने के दायित्व को भली प्रकार निभा रही है।
वह समाचार के महत्त्व को जानती है कि एक पल के बाद समाचार बासी और काला पड़ जाता है, अतः समाचार त्वरित शैली में प्रकाश या आलोक में आ जाना चाहिए । भारत में प्रेस उद्यम या व्यवसाय होने के उपरान्त भी आदर्शों से मण्डित है। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद अर्थात् यथार्थ और आदर्श का समन्वयरूप प्रेस स्थापित करना चाहती है। वह सम्पादकीय, अन्य सामग्री, वर्तमान युग की स्थितियों, समाज की सामयिक समस्याओं का निरूपण करती है। लोगों के स्वास्थ्य, धार्मिक प्रवृत्ति, साहित्यिक अभिरुचि, सांस्कृतिक संचेतना का प्रसार करना भी उसका ध्येय है। प्रसिद्ध विद्वान व समालोचक आई.ए. रिचर्ड्स ने स्पष्ट किया है कि मुद्रित (Printed) शब्दों का मानव पर गहरा असर पड़ता है।
मानव अनुभूतिशील और संवेदनशील प्राणी है। प्रेस उपयुक्त शब्दों द्वारा मानव को अभिभूत करती है। भारत एक विशालतम लोकतन्त्र है। इतना ही नहीं, यह विविधता में एकता का अनुपम उदाहरण है। भारत में विभिन्न प्रदेश हैं जिनमें भिन्न-भिन्न ऋतुएं, रीति-रिवाज, धर्म, जाति, खान-पान, रहन-सहन, भाषा-शैली आदि हैं। इनमें परस्पर सायुज्य और बंधुत्व की भावना लाने में धर्म, संस्कृति और साहित्य का योगदान होता है। प्रेस इस अहम् दायित्व को भली प्रकार जानती है और ऐक्यानुभूति लाने का प्रयास करती है। स्वतन्त्र्योत्तर भारत में जनसंचार के संसाधन विस्तृत हुए हैं।
सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाएं विकसित हुई हैं। स्वराज्य स्थापना भ्रष्टाचार के उपरान्त भारतीय परिवेश में केवल सुख ही सुख हो ऐसी बात नहीं है। भारतीय जनमानस समस्यामूलक स्थितियों से घिरा हुआ है। जातीयता, क्षेत्रवाद, भाषावाद, पृथकतावाद, साम्प्रदायिकतावाद ने राष्ट्रीय चरित्र में गिरावट ला दी है। यह भारतीय समाज की सबसे बड़ी हानि है ।
हम चाहे समाज में कितना भौतिक विकास कर लें, किन्तु मानसिक विकास के अभाव में सब कुछ अपर्याप्त है। भारतीय समाचार पत्र और पत्रिकाएं इस वस्तु स्थिति से परिचित हैं और निष्पक्ष, बेबाक सपाटब्यानी कर अपने पृष्ठों से अभिव्यक्त करना चाहते हैं, किन्तु आज पत्रों की स्वतन्त्रता पर भी प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। कहा जाता है कि स्वतन्त्रता ही पत्रों की प्राणवायु है। पत्र और पत्रकारों को स्वतन्त्र परिवेश मिले तो वे आपेक्षित क्षेत्रों में निर्भीक होकर अपनी भूमिका निभा सकते हैं किन्तु पत्र और पत्रकारों की स्वतन्त्रता पर कुठाराघात होते रहे हैं यह अच्छी बात नहीं है। इसका यह अभिप्राय बिल्कुल नहीं है कि पत्रों में काम करने वाले लोग मनमानी करें, लोकहित की उपेक्षा करें, किसी व्यक्ति विशष या वर्ग की हिमायत कर पीत पत्रकारिता को जन्म दें।
स्पष्ट रूप में पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार संहिता, प्रेस कानून व विधि का औचित्य है। इससे भी महत्त्वपर्ण है कि प्रेस के लोगों के कुछ आदर्श व नैतिक सिद्धान्त होने चाहिएं। आजकल नवोदित पत्रकार ‘सत्यता की अभिव्यक्ति का बहाना कर यथार्थ, अतियथार्थवाद को तो व्यक्त रूप देते हैं, किन्तु आदर्शों के अभाव में समाज के भावी रूप का स्वप्न नहीं लेते। समाज के सर्वांगीण विकास के लिए और समरसता की स्थापना के लिए ऐसा दृष्टिकोण आवश्यक प्रतीत होता है। यह बात सही है कि वर्तमान युग में प्रेस की अवश्यकता है और भारतवर्ष में यह जनसम्पर्क का सशक्त माध्यम सिद्ध हुआ है।
प्रेस सम्बन्धी कानून बनाते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि प्रेस की आजादी का अर्थ क्या है। सरकारी नीतियों और योजनाओं में कोई कमी होने पर अथवा सरकार की कारगुजारी पर प्रेस को कुछ कहने का हक है। सरकार को प्रेस का मुख बन्द करने के लिए ही प्रतिबन्ध नहीं लाने चाहिए। टॉमस जैफर्सन की मान्यता तो यह है कि जहां समाचार-पत्र स्वतन्त्र होते हैं वहां सब कुछ सुरक्षित है। समाचार पत्रों को भी अपनी स्वतन्त्रता की सीमा रेखा निश्चित करनी पड़ेगी। भारत में प्रेस की वर्तमान स्थिति का एक शोचनीय पहलू यह है कि पत्रों का स्वामित्व विकेन्द्रित नहीं है। स्वामित्व के एकाधिकार की यह स्थिति अत्यन्त जोखिमपूर्ण है।
पत्र व पत्रिकाओं का स्वामित्व कुछ ही पूंजीपति हाथों में है, सम्भवतः यह पूंजी की आवश्यकता के कारण हुआ है। समाचार-पत्र और पत्रिकाओं के प्रकाशन, प्रसारण में पूंजी लगती है और पूंजीपति, पूंजी सहज रूप में जुटा लेते हैं। इन पूंजीपतियों की अपनी नीतियां होती हैं जिन्हें उनके पत्र में लागू करना ही उनकी सीधी शर्त है। परिणामस्वरूप पत्र के सम्पादक, उप–सम्पादक व अन्य लोगों को स्थितियों से समझौता करना पड़ता है अथवा पत्र संस्थान से बाहर कर दिया जाता है। श्री एम. चलपतिराव के अनुसार समाचार-पत्र का औद्योगिक हित पत्र – उद्योग में आ जाने से अन्य देशों की तुलना भारत में अधिक सकेन्द्रण हुआ । प्रेस का यह संकट काफी बढ़ा है जो आर्थिक कारणों से उत्पन्न है ।
फलस्वरूप भारत में निजी स्वामित्व के पत्रों की संख्या बढ़ी है। हुआ सहकारी एवं संयुक्त पूंजी के पत्रों की पत्र संख्या कम ही है। यह स्थिति केवल पत्रों की ही नहीं है अपितु पत्रिकाओं की भी है। जब तक पत्र एवं पत्रिकाएं निजी स्वामियों के हाथों में है तब तक पत्र-पत्रिकाएं निर्बाध गति से मानव-समाज की सेवा कर पायेंगी यह कहना कठिन है।
बैनेट कोलमैन सर्वाधिक प्रसार का दावा करता है। एक्सप्रैस ग्रुप भी ऐसा ही दावा करता है। भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी पत्रकारिता अभी निजी स्वामियों के इंगितों पर चलती है। भारत में ट्रस्ट अथवा स्वामित्व इकाई भी है जो आनन्द बाजार पत्रिका, ट्रिब्यून, हिन्द समाचार, हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे पत्रों का प्रकाशन कर रही है। इनमें भी स्वछन्द, निर्भीक, सपाट पत्रकारिता का अभाव परिलक्षित होता है। जनसम्पर्क के क्षेत्र में सरकार भी पीछे नहीं रहना चाहती। प्रशासनिक योजनाओं की सूचना व्यवस्था क्रियान्वयन, सामाजिक कल्याण के कार्यक्रम यथा- आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि गतिविधियों का विवरण एवं उन्हें प्रोत्साहन देने हेतु सरकारी प्रचार आदि उद्देश्यों कुछ विभागीय पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है।
इनमें सरकार का प्रचार तो हो जाता है। योजना, नियमों के स्पष्टीकरण में भी इनकी भूमिका है। ये सरकार के ही पक्ष को उद्घाटित कर पाती हैं। आम व्यक्ति ही अनुभूति को इनमें स्थान नहीं मिल पाता। सरकारी उपक्रमों की तुष्टि ही इनका लक्ष्य है। से • भारत में राजनीतिक दल चुनावी घोषणा-पत्र तो प्रकाशित करते. ही हैं। यह सब तो चुनावी माहौल में होता है, परन्तु लोगों से निरन्तर सम्पर्क साधने के लिए राजनीतिक दल प्रेस का सहारा लेते हैं। राजनीतिक दल समय-समय पर अपने सिद्धान्तों, योजनाओं के प्रचार हेतु पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन करते हैं जिन्हें विचार-पत्र से अधिक महत्त्व नहीं दिया जा सकता।
एक राजनीतिक दल इन माध्यमों का सहारा लेकर दूसरे दल पर कीचड़ उछालने लगता है। इस समय ऐसी लगभग 300 पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है जिनका उद्देश्य पारिमार्थिक न होकर केवल दलदलगत राजनीति है । विभिन्नताओं के देश भारत में धर्म वैभिन्नय न हो, ऐसा कैसे हो सकता है। सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाएँ लोकैषणा एवं अपने धर्म, उद्देश्य विशेष का प्रचार करने हेतु पत्रिकाओं का प्रकाशन कर रही है। यद्यपि ये संस्थाएं व्यक्ति के परिष्कार और मानव समाज में शांति, भ्रातृत्व एवं प्रेम का व्यापक प्रसार करने में सक्षम हैं परन्तु हमारे अपने धर्म एवं कल्याणकारी रूप को सर्वोपरि मानने का लोभ संवरण नहीं कर पाती।
स्वतन्त्रता के उपरान्त भारतीय प्रेस के मार्ग खुले हैं परन्तु राष्ट्र के उत्थान एवं नागरिकों के सर्वागींण विकास का स्वप्न अभी अधूरा है क्योंकि सभी पत्र राजनीतिक प्रभावों की दलदल में फंस चुके हैं। किसी भी पत्र या पत्रिका को पढ़ने के उपरान्त यही देखने को मिलता है कि अधिकांश समाचार, सम्पादकीय अग्रलेख राजनीतिक होते हैं। स्पष्ट है कि राजनीति समाज और व्यक्ति को सीधे रूप प्रभावित करती है, अतः उसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए; किन्तु व्यक्ति के और आयाम भी हैं जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। केवल स्वामित्व के प्रभाव के कारण एक ही राजनीतिक मान्यता का आलाप करना कहां तक न्याय संगत है।
आम लोगों को राजनीतिक दांव-पेंच समझ नहीं आते। इस दिशा में प्रेस आम जनता को संचेतना प्रदान करती है, दिशा निर्देश करती है; राजनीतिक दबाव में अथवा निजी स्वार्थपरता के कारण समाज को दिग्भ्रमित करना उचित नहीं है। हमारे देश में प्रेस का प्रादुर्भाव अकस्मात नहीं हुआ और न ही यह देशों की प्रेस की देखा-देखी प्रतियोगितावश हुआ है। भारत में अन्य प्रेस का उद्भव स्वतन्त्रता के आन्दोलन से हुआ है। भारत के लोगों को संगठित एवं जागरूक करने में प्रेस की सराहनीय भूमिका रही। भारतीय पत्रकारों ने प्रेस के दायित्व को समझा और अनेक यन्त्रणाएं सहकर भी इसे पूरा किया। उन्होंने एक ओर अंग्रेजों के कुकृत्यों एवं कुटिल नीतियों का यथार्थ निरूपण किया तो दूसरी ओर भारतीयों को स्वाभिमान, स्वावलम्बन का महत्त्व बताया।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि भारतीय किस प्रकार अपने जीवन स्तर को सुधार सकते हैं। किन्तु देश की स्वतन्त्रता के उपरान्त मोहभंग की स्थिति भारत में घर कर गई। भारत के लोगों ने अत्यन्त संघर्ष करके स्वतन्त्रता प्राप्त की, किन्तु स्वतन्त्रता के बाद भाई-भतीजावाद, लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, पदलिप्सा इतनी पनपी कि आम आदमी का जीवन और कठिन हो गया । हर क्षेत्र में आपा-धापी, भागदौड़ और प्रतिस्पर्द्धा पनपी है। इस स्थिति ने प्रैस को भी व्यवसाय भर बना डाला है। आधुनिक युग में भारतीय पत्रकार आजीविका व अपने हितों के प्रति जागरूक हैं और वे स्वामी या स्वामित्व समूह की इच्छा के अनुरूप पत्रकारिता करते हैं । स्पष्ट शब्दों में पत्रकारिता का स्तर पहले की अपेक्षा गिर गया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में व्यापकता आयी है, किन्तु आदर्श पत्रकारिता की अपेक्षा स्वार्थों में लिप्त पत्रकारिता ही जीवित है।
वास्तव में निर्भीक पत्रकारों का नितांत अभाव है। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दिनों में पत्रकारों ने जान हथेली पर रखकर पत्रकारिता की थी, प्रतिबन्धों पर तीव्र कटाक्ष किया। तत्कालीन पत्रकारों ने ब्रिटिश सत्ता की नीति और क्रिया-कलापों पर व्यंग्य किया और हर पीड़ा को आत्मसात्त किया, किन्तु अब पत्रकार वेतन और सुविधाओं को महत्त्व देने लगे हैं तथा विषम स्थिति में समझौता करने लगे हैं। निर्भीक, निष्पक्ष दो टूक बात कहने वाले पत्रकारों का नितान्त अभाव है।
यद्यपि प्रेस का आधुनिकीकरण हुआ है, वैज्ञानिक प्रगति के में प्रेस की आशातीत विकास हुआ है, किन्तु अभी प्रेस आम जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती। वह मुट्ठीभर लोगों के स्वार्थों व हितों की रक्षा करती है। प्रेस सामान्य वर्ग की समस्याओं को प्रकाश में लाने की अपेक्षा / सरकार की प्रशंसा या निन्दा करने का स्रोत रह गयी है।
प्रेस सरकार और आम जनता के बीच मध्यस्थ का कार्य कर सकती है। वह स्थितियों का यथार्थ चित्रण करने के साथ-साथ स्थितियों में सुधार लान का प्रयास भी कर सकती है। वास्तव में प्रेस को क्रान्ति- दृष्टा का स्वरूप रखना चाहिए। उसे अपने राष्ट्र और संस्कृति की प्राणवायु को प्रसारित करने की चेष्टा करनी चाहिए। उसे जर्जरित रूढ़िवादिता और परम्पराओं का विरोध कर समाज सुधार प्रवृत्ति अपनानी चाहिए। प्रेस को हर आयाम को सूक्ष्म चिन्तन विषय बनाना चाहिए ।
वर्तमान में प्रेस का चाहे कितना भी प्रसार हुआ हो, किन्तु युग इसका लाभ ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं पहुंचा है। स्पष्ट रूप में कहा जा सकता है कि प्रेस का वर्चस्व केन्द्र, महानगरों तक ही सीमित है। पत्र-पत्रिकाओं का यह केन्द्रीयकरण उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि भारत की अधिकांश जनता ग्रामवासी है। आज भी ऐसे आंचलिक प्रदेश हैं जहां प्रेस की दृष्टि नहीं पहुंच पायी अथवा वहां के लोगों को प्रेस द्वारा उत्प्रेरित संचेतना नहीं मिल सकी। आंचलिक लोगों की दशा आज भी दयनीय है जहां भूखमरी निरक्षरता, अन्धविश्वास व्याप्त है।
आजकल भी जनस्वास्थ्य, शिक्षा, डाक व तार सेवा आदि सुविधाएं, उन लोगों के लिए दिवास्वप्न हैं। आज जिला एवं ग्रामीण पत्रकारिता को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है जिसके बिना स्थानीय स्तर पर विकास लाना असम्भव है। जिला स्तर की पत्रकारिता के विकास के बिना स्थानीय समस्याओं का निराकरण नहीं हो सकता । भारतीय प्रेस ने समाचार, समाचार- चर्चा को तो बल दिया है, किन्तु अभी तक लेखों में सतहीपन झलकता है। अधिकांश लेख वर्णनात्मक एवं विवरणात्मक होते हैं। लेखों में अनुसंधानात्मक प्रवृत्ति का अभाव है।
भारतीय प्रेस ने अधिक लोकप्रियता अर्जित करने के लिए प्रतियोगिता को अपना लिया है जिस कारण पत्र-पत्रिकाओं में हिंसा व कामुकता भरी, ग्लैमर युक्त रचना व चित्रों का प्रकाशन बढ़ा है। संभवतः फिल्मी पत्र-पत्रिकाओं ने इसे बल प्रदान किया है। प्रतियोगिता प्रवृत्ति के कारण देखा-देखी सभी पत्र-पत्रिका में इस प्रकार की विषय-वस्तु मिल जाती है। यह स्थिति विचारणीय है। पत्र-पत्रिकाओं को अपना व्यवसाय को चमकाने के लिए ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे युवा शक्ति दिग्भ्रमित होती हो और सामाजिक सामंजस्य को भी आघात पहुंचता हो । वर्तमान युग में महिलाओं की स्थिति में सुधार लाए बिना समाज के सर्वागींण सुधार की बात अधूरी है।
पिछले दो-तीन दशकों में नारी की स्थिति में सुधारात्मक परिवर्तन आया है। सरकार के संकल्प, कानून योजनाएं और कार्यक्रम नारी की स्थिति सुधारने में वह सब नहीं कर पायेंगे जो समाज के नारी विषयक दृष्टिकोण में परिवर्तन कर पायेगा। भारतीय पत्रकारिता के क्षेत्र में नाम मात्र की पत्रिकाएं नारी जगत से सम्बन्धित हैं और उनमें प्रस्तुत विषय-सामग्री सन्तोषजनक नहीं मानी जा सकती। अपने पति से कैसे बर्ताव करें, ड्राईंगरूम की साज-सज्जा, फ्राक व स्वेटर डिजाइन, आम की रसीली चटनी विषयों सम्बन्धी लेखों से नारी की सामाजिक स्थिति नहीं सुधर पायेगी। यह सब उसके व्यक्तित्व निर्माण, कर्म-कौशल की पुष्टता लाने के प्रयोजन भर हैं। पत्र-पत्रिकाओं ने नारी के वांछित स्तर को स्थापित करने में अधिक योगदान नहीं दिया हैं ।
इस बात की आवश्यकता है कि नारी विषयक सन्दर्भों को उजागर किया जाये और उन पर तर्क वितर्क द्वारा मान्यताओं का स्थापन किया जाये ताकि नारी की स्थिति उभर सके। बाल जगत् से जुड़े पत्र-पत्रिकाओं में अभी वृद्धि की आवश्यकता है । कतिपय पत्रिकाओं ने बालकों के मानसिक, शारीरिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर कुछ प्रयास किया है, किन्तु इस दिशा में बहुत कुछ करना बाकी है। महिला जगत, बाल जगत के साथ प्रौढ़ जगत की भी अपनी स्थितियां एवं समस्याएं हैं, इन सभी वर्गों लिए प्रतिनिधि पत्र-पत्रिकाओं की आवश्यकता है ।
भारतीय प्रेस ने काफी विकास यात्रा तय की है, किन्तु पत्र-पत्रिकाओं में भाषा-शैली की सहजता नहीं है । पत्र-पत्रिका हिन्दी की हो या अंग्रेजी की; किसी भी रचना की भाषा सरल, सुबोध नहीं है। लेखक व सम्पादक अपनी विद्वता पर पाण्डित्य प्रदर्शन करने के लिए शब्दों का ऐसा आडम्बर युक्त जाल बुनते हैं जो सामान्य पाठक बर समझ से बाहर होता है । कतिपय पत्र-पत्रिका कुछ रचनाएं प्रादेशिक भाषा में प्रतिपादित कर वाह-वाही लूटना चाहती हैं, किन्तु यह स्पष्ट है.. कि चाहे कितना ही महत्त्वपूर्ण समाचार हो, सम्पादकीय हो या लेख हो हर रचना की भाषा-शैली सरल एवं बोधगम्य होनी चाहिए। साहित्यिक रचनाएं यथा- कविता, कहानी, नाटक, धारावाहिक, उपन्यास, रिपोतार्ज आदि सभी की भाषा सरल, सरस, मुहावरेदार होनी चाहिए।
पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में धन की आवश्यकता पढ़ती है और विज्ञापन किसी भी पत्र या पत्रिका के आय का अच्छा स्रोत है। अधिक से अधिक विज्ञापन छापने के चक्कर में पत्र-पत्रिकाएं अपने वास्तविक उद्देश्य को भूल रही है। कई पत्रिकाओं के पन्ने पलटने पर आप पाएंगे कि हर पन्ने के पीछे कोई न कोई विज्ञापन है। यह तो माना जा सकता है कि विज्ञापन के बिना पत्र-संस्थाओं का खर्चा पूरा नहीं होता, किन्तु विज्ञापन प्रस्तुत करना ही तो पत्रकारिता का लक्ष्य नहीं है।
प्रेस का वास्तविक ध्येय तो जनकल्याण है। प्रेस का मुख्य उद्देश्य तो समाज को सामयिक स्थिति की जानकारी देना तथा विद्रूप स्थिति को सुधारने में दिशा-निर्देश करना है। कहने का अभिप्राय है कि विज्ञापन प्रकाशित करना पत्र-पत्रिकाओं के लिए जरूरी हो गया है, किन्तु विज्ञापन प्रकाशित करते समय भी लोकहित और शालीनता का परिचय देना आवश्यक है। केवल विज्ञापन ही प्रेस का उद्देश्य नहीं है। प्रेस की सामयिक स्थिति यह है कि प्रेस स्वतन्त्र, निर्भीक होकर अपना दायित्व कर्म पूरा नहीं कर पा रही है। आजकल प्रेस सरकार, राजनीतिक दलों तथा पूंजीगत व्यवसायिक संस्थानों के नियन्त्रण में और वह सामान्य जनता का सही प्रतिनिधित्व नहीं कर पा रही है। पत्रकारों की भी स्थिति यही है कि वे अपने पत्रकारिता कर्म को ईमानदारी और निष्पक्षता से पूरा करने की अपेक्षा व्यावसायिक दृष्टि अपना रहे हैं।
निष्पक्ष, बेलाग, स्पष्ट या दो टूक बात कहने में संकोच T नहीं करना चाहिए। यथार्थ चित्रण, यथार्थ विश्लेषण, यथार्थ सुधार में प्रयास करने चाहिए। पत्रकार का दायित्व समाचारों के माध्यम से केवल सामयिक चित्रण करना नहीं है। सामयिक बोध ‘अर्थात् युगीन सत्य का वर्णन, विश्लेषण करते हुए भावी समाज की रूप-रेखा बनाना भी पत्रकारिता का लक्ष्य होना चाहिए। प्रेस सत्यता को उद्भासित करती है, वर्तमान के आन्तरिक विद्रूप रूप का रहस्योद्घाटन करती है। कुल मिलाकर प्रेस खोजी प्रवृत्ति रखती है, परन्तु अधिकांश पत्रकार इन रहस्यों का उद्घाटन करने में झिझकते हैं और जनमानस के बहुत-सी बातें रहस्य (गोपन) ही बनी रह जाती है। सम्मुख वर्तमान युग में प्रेस को काफी समस्यामूलक स्थितियों को सामना करना पड़ा है।
यद्यपि संचार संसाधन बढ़े हैं, किन्तु यातायात मंहगा होने के कारण प्रसार की समस्या अधिक बढ़ी है। प्रैस ने वैज्ञानिक प्रगति का सहारा लेकर आधुनिकीकरण करने की चेष्टा की है। आयातित मशीनें मंहगी हैं और देश में अत्याधुनिक मशीनों का निर्माण नहीं हो पा रहा है। सरकार की अखबारी कागज वितरण प्रणाली में काफी दोष हैं। प्रसिद्ध और महानगरीय स्तर के पत्र को अधिक अखबारी कागज मिलता है जबकि लघु पत्र कागज के अभाव में काफी पीड़ा अनुभव करते हैं।
कुछ पत्र तो इस कारण बन्द भी हो गये हैं, काफी बन्द होने के कगार पर हैं। यह शोचनीय प्रश्न है कि स्वतन्त्रता के इतने वर्षों के उपरान्त भी प्रेस की स्थिति असंतोषपूर्ण क्यों है? वास्तव में बाजार बाधा, परिवहन बाधा, मशीन बाधा, राजनीतिक बाधा के कारण प्रैस का उतना विकास नहीं हो पाया। इनके साथ यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए कि पाठक बाधा भी प्रैस विकास में बढ़ी बाधा है। भारत में अधिकांश लोग निरक्षर हैं, स्वतन्त्रता के इतने वर्षों के उपरान्त भी विशेषतः ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर लोग निरक्षर हैं। यद्यपि सरकार ने साक्षरता अभियान चलाया है। प्रौढ़ शिक्षा को काफी प्रोत्साहन दिया, किन्तु अभी तक आंचलिक एवं ग्रामीण क्षेत्रों में निरक्षरता विराजती है। यही कारण है कि उनकी पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने की कोई लालसा नहीं है।
शहरी क्षेत्रों में लोग समयाभाव में केवल समाचार सुर्खियां काफी व्यापक और गम्भीर हैं। पढ़ पाते हैं। पाठक बाधा प्रेस की वर्तमान स्थिति का मूल्यांकन करते हुए इस संदर्भ की चर्चा करना भी जरूरी है कि आजादी के इतने वर्षों के उपरान्त भी सम्पूर्ण पत्र क्यों नहीं आ पाया? एक सम्पूर्ण पत्र अपने कलेवर में चतुर्दिक सामग्री समेटे रखता है। जिसे पढ़ने के उपरान्त मन और मस्तिष्क को पर्याप्त खुराक मिलती है जिससे मन अनुभूतियों की लहरियों में संवेगीय उभार हो उठता है।
मस्तिष्क विचारयुक्त चिन्तन और विवेक अर्जित करने लगता है। आंखें समसामयिक स्थितियों को सूक्ष्मता से निहारने लगती हैं। सम्पूर्ण पत्र जीवन के विविध आयामों पर भी दृष्टि बनाए रखता है ताकि जीवन के हर आयाम की जानकारी सामान्य जन तक पहुंच सके, भारत में ऐसे पत्र और पत्रिका की तलाश अभी बाकी है। नवोदित या उदीयमान पत्रकारों को ऐसे पत्र की परिकल्पना करनी है।
समसामयिक पत्रकारिता (प्रेस) की सम्भावनाएं
समाचार-पत्र और पत्रिकाएं विचारों के आदान-प्रदान का सशक्त माध्यम है। भारतीय प्रेस ने अधुनातन तरीके से विकास पाने की चेष्टा की है। तकनीक और प्रशिक्षण ने भारतीय प्रेस को और अधिक शक्तिशाली बना दिया है। स्पष्ट शब्दों में आज भारतीय प्रेस में जनमत की उद्वेलित करने की पूरी क्षमता । वास्तव में प्रेस अधिक प्रभावी और सम्प्रेषणीय माध्यम बन पायी है। आवश्यकता ईमानदारी की है जिससे पत्रकार उसे सकारात्मक स्वरूप दे सकते हैं। जहां तक स्वामित्व का प्रश्न है।
विभिन्न कारणों से प्रत्युत्पन्न यह समस्या मूलक स्थिति लगभग संसार के सभी देशों की प्रेस के साथ है। जून, 1973 में ‘इन्टरनेशनल कांग्रेस ऑफ यूरोपियन जर्नलिस्ट्स ने स्वामित्व के केन्द्रीयकरण का विरोध किया, किन्तु वस्तु-स्थिति ज्यों की त्यों है। भारत एक लोकतान्त्रिक देश है। इसलिए प्रेस को निजी स्वामियों का हित न चाहकर लोक मानस का हित सोचना होगा। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में स्वतन्त्रतापूर्वक, किन्तु मर्यादित या सीमाबद्ध होना एक शर्त है।
समाज के लोकतान्त्रिक स्वरूप की रक्षा और विकास तभी सम्भव है जब प्रेस को स्वतन्त्रता देने की भावना हो। दायित्व बोध की सीमा में रहकर भारतीय प्रेस अपना कार्य स्वतन्त्र रूप से कर पाने में पूर्णतः सक्षम है। आधुनिक समय में प्रेस सम्बन्धी कानूनो के पुनर्निरीक्षण की आवश्यकता है और व्यवसाय – संरक्षण को अधिक महत्त्व देने की आवश्यकता है ताकि प्रेस के लोग अधिक आत्मीयता और स्वतन्त्रता से अपना काम कर सकें। प्रेस पर एकाधिकार या केन्द्रीयकरण का प्रश्न ज्यों का त्यों है। राजशक्ति का अंकुश भी कम नहीं है। यद्यपि संसद ने प्रेस सेंसरशिप के विरोध में 7 मई, 1984 को संशोधन भी किया, किन्तु प्रेस अब भी सत्ता के दबाव में रहती है। जब भी प्रेस की लेखनी ज्वलन्त विषयों का सत्य उजागर करने लगती है, प्रेस की स्वतन्त्रता पर आघात करने के प्रयास होने लगते हैं।
यद्यपि प्रेस को चतुर्थ स्तम्भ की संज्ञा दी जाती है, परन्तु कभी-कभी प्रेस को विधायिका की प्रताड़ना सहनी पड़ती है। ‘प्रेस की स्वतन्त्रता’ का अभिप्रायः वाक् स्वातन्त्र्य है । प्रेस को विधानपालिका व सत्ता के धूमिल चित्र प्रस्तुत करने पड़ते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि प्रेस को विधानपालिका की मर्यादा का ध्यान कर स्वतन्त्रता का प्रयोग करना चाहिए। प्रसिद्ध विधिवेत्ता डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवीं के शब्दों में- “पत्रकारिता की एक मूलभूत कानूनी मर्यादा यह है कि किसी भी प्रकाशित समाचार या लेख द्वारा विधायिका और न्यायालयों की अवमानना नहीं होनी चाहिए।
तथापि प्रेस की स्वतन्त्रता को आघात पहुंचाने वाली कई ऐसी स्थितियां होती हैं जिनकी जांच तथा निराकरण आवश्यक है ।” अन्त में कहा जा सकता है कि स्वतन्त्रता के उपरान्त भारतीय प्रेस ने अनेक स्थितियों का सामना किया है उसके विकास में अनेक समस्याएं हैं। कहीं प्रेस की स्वतन्त्रता का प्रश्न है तो कहीं आर्थिक समस्या है। मंहगी मशीनों और अखबारी कागज की समस्या भी अभी बनी हुई है। विविध समस्यामूलक स्थितियों में भी भारतीय पत्रकार समाज की योगमूलक सेवा कर सकते हैं दूसरी संभावनाए अभी बाकी हैं ।