What is Printing Art and when did printing art start in India? | मुद्रण कला क्या है और भारत में मुद्रण कला की शुरुआत कब हुई?

मुद्रण कला ने अभिव्यक्ति को समर्थ बनाने की चेष्टा की है। नाद पूरा तत्त्व से ध्वनि उत्पन्न हुई, ध्वनि से अक्षरों, शब्दों की निर्मित हुई, शब्दों से वाणी बनी, वाणी को लिखित रूप की आवश्यकता पड़ी जिसे करने की संकल्पना मुद्रण कला है। जब तक वाणी को लिपिबद्ध रूप में मुद्रित नहीं किया जा सका, उस समय तक मनुष्य को अपने भावों व विचारों को व्यक्त करने में असमर्थता का सामना करना पड़ा। 

पत्रकारिता में मुद्रण कला का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। पत्र-पत्रिकाएं कुशल सम्पादन और साज-सज्जा की अपेक्षा कुशल मुद्रण की अपेक्षा भी करती है। मुद्रण को कलात्मक बनाकर पत्र-पत्रिका को अभिरामपूर्ण सौन्दर्य दिया जा सकता है। मुद्रण के उद्भव और विकास के बारे में कहा जा सकता है वेद भारत भूमि के प्राचीन ग्रन्थ हैं, परन्तु यह विचित्र बात है कि मुद्रणकला का विकास चीन में हुआ। 

बौद्ध धर्म के विश्वभर में प्रसार के लिए चीन से ग्रन्थ प्रसारित हुए। माना जाता है 650 ई. में भगवान् बुद्ध का एक चित्र चीन में प्रकाशित किया गया था। ‘हीरकसूत्र‘ नामक ग्रन्थ भी चीन की गुफाओं से प्राप्त हुआ जिसे संभवतः विश्व की पहली मुद्रित कृत्ति माना जाता है।

टाईप के अविष्कार : 

1041 में चीन के पी. शेंग ने मिट्टी के टाइप बनाये। उसने उन्हें आग से पकाया और मुद्रण कार्य किया। 1314 में वांग चांग ने लकड़ी के टाईप प्रयोग किए। तुंनहुआंग ने वर्ण टाईपों का आविष्कार किया। वह एक स्वर्णकार का पुत्र था जिसने बाईबिल की प्रतियां विकसित करने के उद्देश्य से टाईपों का विकास किया। 1456 में बाईबिल की प्रति प्रकाशित हुई पर इस पुस्तक पर स्थान, तिथि सम्बन्धी विवरण नहीं है। 

गुटनबर्ग के अन्य सहयोगियों में फस्ट, शोफर उल्लेखनीय हैं। टाइप का अविष्कार करने वालों में कास्टर (हालैण्ड) वाइटो (बेल्जियम) कास्टेल्डे (इटली) का विशेष नाम है। मुद्रण कला चीन से होती हुई जर्मनी, जापान, कोरिया आदि में विकसित हुई। यूरोप में इस कला का भरपूर विकास हुआ। 

विभिन्न मुद्रण पद्धतियां : 

मुद्रण के माध्यम से मूल प्रति की असंख्य समरूप प्रतियां प्रकाशित हो सकती हैं। मुद्रण की विभिन्न पद्धतियों में कुछ इस प्रकार हैं 

1. लेटर प्रेस मुद्रण पद्धति : 

यह प्रणाली सबसे प्राचीन और सर्वाधिक प्रचलित है। इसका अविष्कार 1440 में जॉन गुटनबर्ग ने किया। 1500 ई. में स्टेनहोप (इंग्लैण्ड) ने इसमें विकास करने की चेष्टा की। इस मुद्रणपद्धति में मुद्रण सतह, मुद्रण में प्रयुक्त न होने वाली सतह से ऊपर उठी होती है। स्याही रोलरों द्वारा मुद्रण सतह पर स्याही लगायी जाती है जो दबाव द्वारा कागज पर आ जाती है। टाईप को कम्पोज करके वांछित आकार का पृष्ठ बनाया जाता है और टाईप फेस पर स्याही लगी रहती है। 

मशीन की दाब से छपाई सम्भव है। यदि कम संख्या में पृष्ठ मुद्रित करने हों तो यह विधि उत्तम मानी जाती है। इसमें मुद्रण के अन्तिम समय में भी अशुद्धियां दूर की जा सकती हैं। इसमें अच्छे स्तर का मुद्रण संभव है । इस पद्धति से मुद्रित पृष्ठों में पिछली साइड में हल्का सा अक्षर उभरा दिखाई दे सकता है। मुद्रण की सतह तैयार करने में तथा कम्पोजिंग में काफी समय अपव्यय हो जाता है। इस मुद्रण में काफी बड़ी संख्या में मुद्रण कार्य नहीं हो पाता ।

2. ऑफसेट मुद्रण पद्धति : 

“जल और तेल एक दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं।” इस सिद्धांत पर ऑफसेट मुद्रण पद्धति आधारित है। एलियास सेनेफिल्डर ने सन् 1796 में ऑफसेट मुद्रण पद्धति का अविष्कार किया। इस पद्धति में तेल वाली मुद्रण सतह तथा जल वाली बिना मुद्रण की सतह दोनों एक ही तल पर होती हैं। बिना मुद्रण की सतह एक महीन परत धारण करके तैलीय स्याही नहीं लगने देती जबकि मुद्रण वाली सतह जल को प्रति आकर्षित कर तैलीय स्याही धारण कर लेती है। स्याही पहले रबर की सतह के ऊपर और फिर दबाव द्वारा कागज पर लायी जाती है। 

मुद्रण तल ऋणात्मक, धनात्मक प्रकाश संवेदीय लेपों द्वारा एल्युमिनियम या जिंक प्लेटों पर तैयार किया जाता है। इस पद्धति में कागज सीधे तल के सम्पर्क में नहीं आता । यह एक विशिष्ट परोक्ष मुद्रण पद्धति है जिसके लिए शीट फेड ऑफसेट तथा वेबफेड ऑफसेट मशीनों को प्रयुक्त किया जाता है। शीटफेड ऑफसेट मशीन मुद्रण कार्यों में उपयोगी है जबकि वेबफेड ऑफसेट का उपयोग तीव्र गति के मुद्रण में किया जाता है। यह बड़ी संख्या में प्रतियों का मुद्रण करती है। ऑफसेट मुद्रण की विशेषता है कि इसमें मुद्रण की गति तेज होती है। इस पद्धति में सस्ती प्लेटों का प्रयोग किया जाता है। चित्रों का मुद्रण भी इसमें संभव है। सबसे बड़ी समस्या इसमें जल व तेल के सन्तुलन लाने में आती है। 

यदि चित्रों का प्रकाशन करना हो तो स्याही प्रगाढ़ नहीं की जा सकती। इस पद्धति में कागज का अधिक नुकसान होता है। मशीनों का रख-रखाव कठिन है । स्याही सुखाने में समय लगता है।

3. ग्रेवियोर मुद्रण पद्धति : 

कार्ल क्लिश्च ने सन् 1879 में ग्रेवियोर मुद्रण पद्धति का अविष्कार किया। यह पद्धति लेटर प्रेस मुद्रण पद्धति के विपरीत है। इसमें एक बेलनाकार सतह पर मुद्रण सतह नीचे की ओर धंसी हुई होती है जबकि बिना मुद्रण वाली सतह चिकनी तथा ऊपर की ओर होती है। मुद्रण सतह वाला बेलनाकार सेलेण्डर स्याही पात्र में घूमता रहता है। 

डक्टर ब्लेड से स्याही हटाने का काम लिया जाता है। मुद्रण स्तह से कागज पर स्याही उतर आती है। कागज सीधे मुद्रण सतह के सम्पर्क में रहता है। इसलिए इसे प्रत्यक्ष मुद्रण विधि माना जाता है। ग्रेवियोर मुद्रण पद्धति एक अच्छे किस्म की मुद्रण करने वाली पद्धति है। इसमें विभिन्न प्रगाढ़ रंगों का संयोजन होता है। अधिक संख्या में गुणवत्ता वाले मुद्रण कार्य इससे संभव हैं। इसमें कागज के अतिरिक्त प्लास्टिक सतह पर मुद्रण हो सकता है। इसकी स्याही अल्कोहल युक्त होने के कारण स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। यह एक खर्चीली पद्धति है। 

4. सिल्क स्क्रीन मुद्रण पद्धति : 

सेमुअल सिमसन ने सन् 1907 में इस पद्धति का आविष्कार किया। इसमें सिल्क या तामलान के जालीदार महीन कपड़े का प्रयोग मुद्रण सतह के लिए होता है। इस पर संवेदी प्रकाशीय लेप लगाकर पॉजिटीव से प्रकाशित किया जाता है। बिना मुद्रण वाली सतह प्रकाश पार होने पर कठोर हो जाती है। मुद्रण सतह नरम होती है। 

यह सतह पानी में घुलकर जालीदार कपड़े की सतह से हट जाती है। सिल्कस्क्रीन में स्वचालित मशीनों द्वारा मुद्रण संभव हो गया है। यह कपड़े और प्लास्टिक पर मुद्रण करने में समर्थ पद्धति है। इससे रंगयुक्त मुद्रण हो सकता है। कम लागत में मुद्रण करने के लिए यह पद्धति उपयुक्त है। इससे पृष्ठभूमि पर भी रंग योजना की जा सकती है। इस पद्धति का दोष यह है कि इसमें मुद्रण की गति धीमी है। मुद्रण में स्याही की खपत अधिक हो जाती है। यदि अधिक संख्या में मुद्रण करना हो तो यह एक खर्चीली पद्धति बन जाती है। 

5. फ्लेक्सोग्राफी मुद्रण पद्धति : 

सी.ए. होलवेग के भरसक प्रयासों से सन् 1908 में यह पद्धति अस्तित्व में आयी । यह लेटरप्रेस जैसी ही एक मुद्रण पद्धति है। इस मुद्रण के अन्तर्गत मुद्रणं सतह ऊपर उठी हुई तथा बिना मुद्रण वाली सतह नीचे की ओर होती है, कुछ धंसी हुई। इसमें बेलनाकार सिलेण्डर का प्रयोग होता है। मुद्रण की सतह पर तेजी से सूखने वाली स्याही रोलर व डक्टर ब्लेड से लगायी जाती है जो सीधे कागज पर उतर आती है। 

यह एक आधुनिकतम प्रत्यक्ष मुद्रण पद्धति है जिसमें बहुरंगी छपाई भी संभव है। इस मुद्रण पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें कागज के अतिरिक्त प्लास्टिक पर भी मुद्रण संभव है। इस पद्धति में कम समय लगता है और बड़ी तीव्र गति से मुद्रण हो सकता है है। 

6. डी. टी. पी. डेस्कटॉप पब्लिशिंग (D.T.P.) : 

आधुनिक युग कम्प्यूटर का युग है। कम्प्यूटर के आगमन ने सूचना प्रोद्यौगिकी में ही अपूर्व क्रान्ति नहीं प्रदान की अपितु प्रकाशन में भी परिवर्तन ला दिया है। कम्प्यूटर से पूर्व मुद्रण पद्धतियों में मुद्रण करने में काफी समय लग जाता था और उनमें कलात्मकता भी कम पायी जाती थी, किन्तु अब अत्यन्त कलात्मक, रंगीन और अल्प समय में ही सब कंप्यूटर पर संभव है अब तो कंप्यूटर की बोर्ड से ही सम्पादन, मुद्रण प्रूफ शोधन सभी कार्य नियन्त्रित होते हैं। 

इनके अतिरिक्त चित्रों को भी आवश्यकतानुरूप प्रयुक्त करने की सुविधा रहती है। कंप्यूटर द्वारा मुद्रण की यह विशेषता है कि इसमें लिपिबद्ध सामग्री और चित्रों को स्मृतिकोष में भविष्य में प्रयोग के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है। कंप्यूटर पर रंग–वैभिन्नय द्वारा रचना का कलात्मक मुद्रित रूप प्रतिपादित करना संभव हैं डी.टी.पी. में इंकजेट व लेजर प्रिंटर से उत्कृष्ट मुद्रण किया जा सकता है। डेस्कटॉप पब्लिशिंग की सबसे बड़ी विशेषता है कि सम्पादन, प्रूफ पाठन, पेंटिंग सभी कार्य एक व्यक्ति अपनी मेज पर कर सकता है। इससे मुद्रण में कम समय लगता है तथा वास्तविक लागत लगती है। 

डी.टी.पी. में कुंजीपटल (कीबोर्ड) का प्रयोग कर अक्षरों को मॉनीटर पर उतारा जाता है फिर उनमें आवश्यकतानुरूप परिवर्तन लाया जाता है। अशुद्धियां दूर की जाती हैं। चित्रों व रेखा-चित्रों में रंग संयोजन करके देखा जाता है। स्कैनर की सहायता से किसी भी चित्र या ग्राफिक में परिवर्तन किया जा सकता है। इस सामग्री को प्रिंटर के माध्यम से मुद्रित किया जा सकता है। आज कल पत्रकारिता उद्योग में डी. टी. पी. अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली पद्धति है। 

इस मुद्रण पद्धति का सबसे बड़ा कर्म-कौशल तो यह है कि एक ही मेज पर एक ही व्यक्ति सम्पादक, मुद्रण, प्रूफ संशोधन सारे काम पूरे कर लेता है। इस पद्धति से सारे कार्य सहज रूप से हो जाते हैं। चित्रों, ग्राफिक्स आदि के आकार, रंग-रूप के साथ-साथ कॉलमों की संख्या कम या अधिक करना, शीर्षक एवं इन्ट्रो के अक्षरों के आकार को विभिन्न रंगों में सम्पादित किया जा सकता है तथा उन्हें बदला जा सकता है। इसमें डिजाइन और मेकअप की एक साथ सुविधाएं जुटायी जा सकती हैं। 

डिजाइन के अन्तर्गत विषय-सामग्री को बड़ा-छोटा या किसी भी आकार में, कॉलमों की कम या अधिक संख्या में ढाल कर देखा जा सकता है। साथ ही साज-सज्जा में अधिक मथ्थापच्ची नहीं करनी पड़ती। वह मॉनीटर स्क्रीन पर ही पूरी की जा सकती है। एक विशेष बात यह है कि कंप्यूटर पृष्ठ की द्वारा एक विषय का मुद्रण दूसरे कंप्यूटर पर भी भेजा जा सकता है। कुल मिलाकर डी.टी.पी. एक विशिष्ट मुद्रण विधि है जिससे कम समय में अच्छी गुणवत्ता का कार्य पूरा किया जा सकता है 

भारत का मुद्रण कला का अभ्युदय 

मुद्रण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें कम्पोजिंग, प्रूफ संशोधन, मुद्रण आदि सब कुछ आ जाता है। सामान्यतः कागज या कपड़े पर स्याही और दाब की सहायता से प्रतिकृति को उतारना ही मुद्रण है। भारत में इस कला का प्रारम्भ 16वीं शताब्दी में ईसाई मिशनरी लोगों ने प्रारम्भ की। ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए ईसाई मिशनरी ने मुद्रण मशीनों की आवश्यकता महसूस की फलस्वरूप भारत में पहली प्रैस 6 सितम्बर, 1556 को गोवा में लगायी गयी। 

सेंट जेवियर ने 1557 में ‘दौकत्रीना क्रिस्टाओं’ नामक सर्वप्रथम पुस्तक प्रकाशित की। 1674 में भीम जी पारीख ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सहयोग से मराठी मुद्रण प्रारम्भ करने के लिए बम्बई में एक प्रैस लगायी। तीसरी प्रैस लगाने का प्रयास डेनिस बर्थालेम्योजीगेन का है उन्होंने 1712 में मद्रास स्थापित की। में एक प्रेस देवनागरी की पहली पुस्तक ‘चाइना इलस्ट्रेटा’ मानी जाती है। यह रचना अस्थानासी किचैरी ने 1675 में प्रकाशित करायी थी। 

देवनागरी की पहली व्याकरण 1771 में प्रकाशित हुई। यह गिरोवानी क्रिस्टोफोटो अभापूंजी तथा कैसियानस वैलिगती द्वारा प्रकाशित रचना है। देवनागरी के टाईपों का विकास करने में पंचानन कर्मकार तथा चार्ल्स विल्किंस का योगदान अविस्मरणीय है। भारत में मुद्रण कला के विकास में श्रीरामपुर ईसाई मिशनरी, विल्किंस, कैरी आदि का यथेष्ट योगदान रहा।

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